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भविष्य की आहट / डा. रवीन्द्र अरजरिया साम्प्रदायिक झंडों के जुनून को राष्ट्रप्रेम की दिशा में परिवर्तित कर गया तिरंगा

 आजादी के अमृत महोत्सव के दौरान घर-घर तिरंगा फहराने की अपील की गई। राष्ट्रभक्ति का दिखावा करने वाले अनेक राजनैतिक दल, संगठन, लोग बेनकाब होने लगे। मनमानी परिभाषाओं से अपनी सोच को छुपाने का फैशन चल निकला मगर देश के युवाओं ने इसे उत्सव के रूप में स्वीकारा। तिरंगा रैलियों के शासकीय आयोजनों से कहीं ज्यादा गैर शासकीय आयोजन किये गये। वाहन रैलियों से लेकर पैदल मार्च तक निकाले गये। तिरंगा लगाने की होड सी लग गई। इस अपील ने साम्प्रदायिक झंडों को मीलों पीछे छोड दिया। हरे और भगवा रंग के झंडे फहराने वालों की मानसिकता को देशहित में परिवर्तित करने का कीर्तिमानी प्रयास सामाने आया। ऐसे में साम्प्रदायिक झंडों के जुनून को राष्ट्रप्रेम की दिशा में परिवर्तित कर गया तिरंगा। चन्द राजनैतिक खुराफाती लोगों को छोड दें तो देश के सभी नागरिकों ने प्रधानमंत्री की अपील को खुले मन से स्वीकार किया। घर-घर तिरंगा की अपेक्षा से कहीं आगे बढकर लोगों ने वाहनों, दुकानों, प्रतिष्ठानों, संस्थानों, औद्योगिक इकाइयों, व्यवसायिक केन्द्रों, शिक्षालयों सहित सभी स्थानों को राष्ट्रध्वजों से सजा दिया। स्वतंत्रता दिवस पर लम्बे समय बाद ऐसा उल्लास देखने को मिला। अनेक धार्मिक स्थलों तक में राष्ट्रप्रेम की बयार से उठने वाली सुगंध सुभाषित करती रही। व्यवसाय का एक नया दरवाजा भी खुला। निर्माण इकाइयों ने तिरंगे का व्यवसायिक उत्पादन करके अच्छा खासा मुनाफा भी कमाया। दुकानों पर झंडों की खासी बिक्री भी हुई। आर्थिक लाभ के ब्याज के साथ-साथ राष्ट्रप्रेम का मूल निरंतर बढता चला गया। साम्प्रदायिक सौहार्द को चिन्गारी लगाने वालों के मंसूबों पर आजादी के अमृत महोत्सव ने मूसलाधार बारिस कर दी। सीमापार से आतंक की फसल को तिरंगे ने तुसार बनकर नस्तनाबूत कर दिया। यद्यपि स्वतंत्रता दिवस पर खून खराबा करने-कराने वालों ने कोई कोर कसर नहीं छोडी। कहीं हत्याओं की सुपाडियां दी जाती रहीं, तो कहीं टारगेट किलिंग को अमली जामा पहनाते की कोशिशें होतीं रहीं। जातिवाद से लेकर सम्प्रदायवाद तक का जहर उगलने वालों की कमी नहीं रही। कट्टरवादियों ने इस उल्लास के रोमांचित पर्व को भी स्वार्थ की भेंट चढाने की कोशिश की, मगर ऐसे लोग आम आवाम को बरगला नहीं पाये बल्कि स्वयं ही रेखाकित होते चले गये। चन्द ऐसे भी लोग चिन्हित हुए जो पर्दे के पीछे से राष्ट्रदोह का मंसूबा पाले बैठे हैं। राष्ट्रप्रेम के सुगन्धित वातावरण में वैमनुष्यता की दुर्गन्ध फैलाने वाले अपना काम करते रहे परन्तु इस मध्य भाईचारे का अलख जगाने वालों की भी कमी नहीं रही। मीडिया के विभिन्न स्वतंत्र आयामों पर अतीत के मधुर स्पन्दन वाले क्षणों को जागृत करने वालों ने भी कमर कस ली थी। जंग-ए-कर्बला के अनेक सौहार्द भरे अनजाने पहलुओं को उजागर करके यादों को ताजा किया गया। लगभग 1400 वर्ष पहले ईराक में एक जंग लडी गई थी, जिसे जंग-ए-कर्बला कहा जाता है। इस जंग की पृष्ठभूमि बादशाह यजीद के इंसानियत के खिलाफ जारी होने वाले फरमानों ने तैयार की। यजीद की हुकूमत ईराक, ईरान, यमन, सीरिया सहित अनेक इलाकों में चलती थी। कहा जाता है कि उसने अपनी हुकूमत में इजाफा करने की गरज से इस्लाम के नबी मोहम्मद साहब के नवासे इमाम हुसैन को गुलाम बनाने की तैयारी की। इसके खिलाफ इमाम हुसैन ने जंग छेड दी। जिक्र आता है कि जब इमाम हुसैन जंग के लिए जा रहे थे तो उन्होंने मदद की गरज से हिन्दू राजा और मोहयाल राजा राहिब सिध्द दत्त को इस की जानकारी पहुंचाई। राजा राहिब सिध्द दत्त ने अपनी सेना को इमाम हुसैन को ओर से लडने के लिए कूच करने का हुक्म दिया, लेकिन जब वे वहां पहुंचे तब तक इमाम हुसैन शहीद हो चुके थे। यजीद की फौज ने पहले ही इमाम हुसैन का सिर तन से जुदा कर दिया था। बादशाह के सैनिक इमाम हुसैन के सिर लेकर महल की ओर जा रहे थे तभी राजा राहिब दत्त और उनकी सेना ने धावा बोल दिया। कहा जाता है कि इस जंग में राजा राहिब दत्त ने अपने बेटों की कुर्बानी देकर इमाम हुसैन का सिर हासिल कर लिया था। इस जंग में राजा राहिब दत्त के बेटों सहित अनेक मोहयाली ब्राह्मणों को अपनी जान निछावर करना पडी थी। उल्लेखनीय है कि वीर मोहयाली सैनिकों ने कर्बला में जहां डेरा डाला था, उस स्थान को हिंदिया कहा जाता है और मोहयाल ब्राह्मणों को पूरे इलाके में हुसैनी ब्राह्मण के नाम से भी सम्मान दिया जाता है। ब्राह्मणों की यह विरादरी अरब, कश्मीर, सिंध, पाकिस्तान सहित अनेक स्थानों पर साम्प्रदायिक एकता के रूप में आज भी सम्मानित है। इस तरह के भाईचारे की मिशाल कायम करने वाला इतिहास उजागर करके राष्ट्रप्रेम जगाने वालों ने अपने स्तर पर खूब प्रयास किये। कर्नाटक के बेलागावी जिले के अन्तर्गत आने वाले सबदत्ती तालुका के हिरेबिदनूर गांव में एक भी मुस्लिम नहीं है फिर भी वहां हर साल मुहर्रम का मातम मनाया जाता है, जुलूस निकाला जाता है और दफनाया जाता है ताजिया। इतना ही नहीं कर्बल का दृश्य, रस्सी कला, युध्द कौशल, आग में साहस का प्रदर्शन निरंतर किया जाता है। इस गांव में वाल्मीकी तथा कुरुबा जाति के लोगों की आबादी ज्यादा है। गांव की एकमात्र मस्जिद है जिसे फकीरेश्वर मस्जिद कहा जाता है। मस्जिद में हिन्दू पुजारी परम्परागत ढंग से पूजा-इबादत करते हैं। हिन्दू पुजारी का नाम यल्लप्पा नायकर है जो मस्जिद में पूजा-इबादत के बाद निरंतर राष्ट्र की खुशहाली के लिए मन्नत मांगते हैं। गांव के हिन्दू पुजारी मुहर्रम के मौके पर पास के गांव बेविनकट्टी से एक सप्ताह के लिए मौलवी साहब को आमंत्रित करते हैं जो निर्धारित समय तक मस्जिद में रहकर इस्लामिक तरीके से नमाज अदा करते हैं। अन्य दिनों में मस्जिद की जिम्मेवारी हिन्दू पुजारी यल्लप्पा नायकर ही उठाते हैं। कहा जाता है कि दो मुस्लिम भाईयों ने बहुत समय पहले दो मस्जिदों की स्थापना की जिसमें से एक गुटनट्टी के पास है तथा दूसरी हिरेबिदनूर में। मुस्लिम भाइयों की मृत्यु के बाद गांव के हिन्दूओं ने मस्जिद की जिम्मेवारी उठाई। यह दायित्व पूरे सम्मान के साथ निरंतर निभाया जा रहा है। ऐसे ही बिहार के सारण जिले के एकमा प्रखण्ड के रसूलपुर चट्टी गांव में तो हिन्दुओं और मुसलमानों में ताजिये को लेकर पवित्र स्पर्धा होती है। दौनों तरफ के लोग अपनी सामर्थ के अनुसार भव्य ताजिये का निर्माण करते है। इस दौराना हिन्दुओं की ओर से अल्लाह का नारा बुलंद किया जाता है। ऐसा ही प्रयास रामनवमी आदि के जुलूस में मुसलमान भी जयश्रीराम ने जयकारे लगाकर करते हैं। वहीं उत्तर प्रदेश के प्रयागराज के रामबाबू गुप्ता का परिवार तो पिछली कई पीढियों से मुहर्रम मना रहा है। इसी क्रम में उल्लेखनीय है कि डलमऊ में गंगा पुजारी पुकुन शुक्ला का परिवार निरंतर न केवल ताजिया रखता है बल्कि मुहर्रम पर सक्रिय भागीदारी दर्ज करता है। पुजारी की दो पीढी पहले वाले पूर्वज के एक मुस्लिम मित्र के पास अचानक आर्थिक तंगी आ गई, सो वह ताजिया नहीं रख पा रहा था। तब उसके पुजारी मित्र ने स्वयं ताजिया रखा तथा सहयोग किया। तब से पुजारी की पीढियां निरंतर इस परम्परा को कायम किये है। देश की ऐसी अनगिनत मिशालों से मीडिया के सभी प्लेटफार्म आज तक भरे पडे हैं। ऐसे में देश के प्रधानमंत्री की अपील ने सोने में सुगन्ध का काम कर दिया और देश में बहने लगी राष्ट्रप्रेम की बयार। इस बार बस इतना ही। अगले सप्ताह एक नई आहट के साथ फिर मुलाकात होगी।


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