भविष्य की आहट / डा. रवीन्द्र अरजरिया विरासत के विकृत होते अर्थो पर लगाना होगा अंकुश
देश की विरासत के रूप में साहित्य, कला और संगीत की थाथी हुआ करती थी। इन्ही तीन विधाओं के माध्यम से समाज को प्रेेरणायें प्रदान की जातीं थीं। राष्ट्र भक्ति से लेकर शाश्वत सत्य तक की व्याख्यायें जनमानस पर अमिट छाप छोडतीं थी। यह स्थिति आज भी जस की तस कायम है। अन्तर केवल इतना आया है कि पहले के साहित्य, कला और संगीत की त्रिवेणी ने गुलामी काल के बाद से अंग्रेजों की नकल को ही विरासत मान लिया है या यूं कहा जाये कि देश के चन्द कथित ठेकेदारों ने अंग्रेजियत को ही विरासत मानने पर नागरिकों को विवस कर दिया, तो गलत नहीं होगा। यह चन्द लोग अपनी सोच के साथ नहीं बल्कि दूसरों की सोच के उपकरण बनकर काम कर रहे हैं। परिणामस्वरूप त्रिवेणी की तीनों धारायें बदलती चलीं गईं। सिनेमा, क्रिकेट और राजनीति ने मुख्य स्तम्भ बनकर समाज को दिशा दिखाना शुरू कर दी। वर्तमान में सिनेमा से जुडे अभिनेताओं को करोडों रुपयों में परिश्रमिक मिलता है। आखिर ऐसा क्या कर रहे हैं यह अभिनेता कि इन्हें करोडों रुपये दिये जायें। जो फिल्म निर्माता इतनी बडी धनराशि देते हैं, वो निश्चय ही कई गुना ज्यादा कमाते होंगे। 90 के दशक तक तो देश की संस्कृति की आंशिक पहचान रखने वाली फिल्में बनाई जातीं थीं किन्तु उसमें भी समाज के सामने नेताओं की आपराधिक छवि, पुलिस का विकृत स्वरूप, पण्डित का कलुषित चेहरा, मुसलमान का वफादारी वाला चरित्र आदि का परोसा जाता रहा। यह सब पूर्व निर्धारित षडयंत्र के तहत किया जाता रहा। धीरे-धीरे समाज में पण्डितों के प्रति नफरत, पुलिस के प्रति अविश्वास, राजनेता के प्रति घृणा और मुस्लिम के प्रति प्रेम पनपने लगा। तिस पर राजनीति के माहिरों व्दारा पक्षपातपूर्ण मानसिकता से बनाये गये संविधान में बहुसंख्यकों पर कुठाराघात करने वाले संशोधनों को निरंतर लागू किया जाता रहा। फिल्म उद्योग में देश की आय का एक बडा भाग लगाया जा रहा है। इस धनराशि में अवैध ढंग से कमाया गया पैसा खपाने की भारी सम्भावनायें थी, सो माफियों, डान, तस्करों की गिरफ्त में फिल्मी दुनिया आती चली गई। ग्लैमर की चकाचौध से युवा वर्ग इस ओर खासा आकर्षित होता चला गया। देश की संस्कृति को तार-तार करने का एक बडा हथियार बनकर फिल्में उभरने लगीं। बम्बई में बनने वाली फिल्मों ने उसे बालीबुड बना दिया और प्रारम्भ हो गई हालीबुड से आगे निकलने की होड। इस दौरान रामलीला के मंच, थियेटर का स्वरूप, गली-मुहल्लों के नाटकों की चौपालें, सांस्कृतिक आयोजन, लोक गायन प्रतियोगितायें, क्षेत्रीय गायकी का मुकाबला, लोक नृत्यों की सतरंगी विधा जैसे धरातल से जुडे कारकों को फिल्मों की चकाचौंध के तले नस्तनाबूत कर दिया गया। लोकमंचों पर अध्यात्मिक कथानकों को विकृत करके बनाई गई फिल्में देखी-दिखाई जाने लगीं। क्षेत्रीय प्रतिभायें कुंठा का शिकार होती चलीं गईं। कुछ आत्मविश्वास से भरी प्रतिभाओं ने बम्बई का रुख किया जिसमें से अधिकांश शोषण का शिकार होकर बरबाद होती चली गई। भाई-भतीजावाद से लेकर गाड फादर तक का बोलबाला बढता गया। फिल्म जगत में माफियों की दम पर एक समुदाय विशेष के लोगों का कब्जा होता चला गया। आज हालात यह है कि उसी खास समुदाय ने फिल्म जगत में ड्रग्स, तस्करी, अपराध का अश्लील नृत्य शुरू कर दिया है। फिल्मकारों के गिरोह बन गये हैं। इन गिरोहों के आकाओं की भौतिक मौजूदगी भरे ही सात समुन्दर पार हो मगर उनकी सल्तनत मुम्बई सहित देश के हर महात्वपूर्ण स्थानों तक फैली है। इसी तरह क्रिकेट के खिलाडियों को करोडों की आय होने लगी है। मैच के दौरान देश ठहर सा जाता है। उत्पादन से लेकर सेवायें तक लगभग ठप्प हो जातीं है। सट्टा, जुआ, बाजी लगाने वाले अवैध धंधे पनपने लगे। मैच फिक्सिंग का प्रचलन चल निकला है। खिलाडियों के काले-सफेद चेहरे उजागर होते चले गये। देश के लिए खेलने वाली अनेक प्रतिभायें पैसे के लालच में गद्दारी करने लगीं। वर्चस्व की जंग में टीम का खेमों में बटना शुरू हो गया। चयनकर्ताओं पर खिलाडियों के साथ पक्षपात करने के आरोप लगते चले गये। आरोपों की जांच करने की घोषणायें तो हुई परन्तु परिणामों को सार्वजनिक करने की स्थिति शायद ही कभी आई हो। क्रिकेट के खिलाडियों को भगवान का दर्जा देने वाले चाटुकारों ने उनके अहंकार को चरम सीमा पर पहुंचा दिया। क्रिकेट के आगे हाकी, कबड्डी जैसे खेल, लोकप्रियता के ग्राफ पर नगण्य होते चले गये। क्रिकेट के खिलाडी को पलकों पर बैठाने वालों ने उनकी मार्केटिंग करना शुरू कर दी और व्यवसायिक ढंग से उनको पैसा कमाने की मशीन बना दिया। त्रिवेणी की अगली पायदान पर बैठी राजनीति ने समाज सेवा का चोला उतार कर व्यवसाय का रूप धारण कर लिया। इस संदर्भ में वियतनाम के राष्ट्रपति हो-चीं-मिन्ह की भारत यात्रा का वर्णन करना प्रासांगिक हो गया है। उन्होंने भारतीय प्रतिनिधि मण्डल के साथ वार्ता के दौरान पूछा कि आप लोग क्या करते हैं। तो हमारे देश के मंत्रियों ने कहा कि हम लोग राजनीति करते हैं। वे इस उत्तर को समझ नहीं सके। उन्होंने अपने प्रश्न को स्पष्ट करते हुए पुन: कहा कि मेरा मतलब है कि आपका पेशा क्या है। तो मंंत्रियों ने कहा कि राजनीति ही हमारा पेशा है। इस पर हो-चीं मिन्ह ने झुझलाते हुए जोर देकर कहा कि शायद आप लोग मेरा मतलब नहीं समझ रहे हैं। राजनीति तो मैं भी करता हूं लेकिन पेशे से मैं किसान हूं, खेती करता हूं। खेती से मेरी आजीविका चलती है। सुबह-शाम मैं अपने खेतों में काम करता हूं, दिन में राष्ट्रपति के रूप में देश के लिए अपने दायित्व निभाता हूं। इस पर भारतीय प्रतिनिधि मण्डल निरुत्तर हो गया। किसी भी मंत्री के पास कोई जबाब नहीं था। अपनी बात पूरी करने के बाद जब वियतनाम के राष्ट्रपति ने पुन: अपना प्रश्न दोहराया तो प्रतिनिधि मण्डल के एक सदस्य ने नजरें झुकाकर कहा कि राजनीति करना ही हम सभी का पेशा है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि आज देश के अनगिनत राजनैतिज्ञ केवल राजनीति को पेशे के रूप में अख्तियार करके न केवल जीवकोपार्जन कर रहे हैं बल्कि पेंशन के अलावा अपनी पहुंच से भारी भरकम लाभ भी कमा रहे हैं। जब देश में सिनेमा, क्रिकेट और राजनीति को पैसा कमाने का सर्वोच्च साधन मान लिया गया है तो फिर विकास के मायने सरकारी कोष से एक सडक को अनेक बार बनवाने, भवनों का निर्माण करवाने, वाहनों और अनावश्यक मशीनों को खरीदने, मानवीय रोजगार के स्थान पर यांत्रिक प्रयोग करने जैसे कारकों तक ही सिमिट जाते हैं। फिल्मों की लोकप्रियता का ग्राफ देश के विकास को किस तरह से द्रुतगति दे रहा है, क्रिकेट मैच की हार-जीत से नागरिक सम्पन्नता को कैसे पंख लग रहे हैं और राजनीति से जुडे दिग्गजों को जनप्रतिनिधि के आधार पर मोटी-मोटी रकम देने से देश की विश्व व्यापी छवि कैसे शीर्षोन्मुख होगी, इन प्रश्नों का उत्तर शायद ही आम नागरिक की समझ में आया हो। जिस युवा राष्ट्र में लोगों को मुफ्तखोरी की आदत डाली जा रही हों, तुष्टीकरण की नीतियां अपनाई जा रहीं हों, गरीबों के कल्याण के नाम पर मेहनतकश ईमानदार लोगों की कमाई से मिलने वाले टैक्स को लुटाया जा रहा हो, प्रतिभाओं को आरक्षण की तलवार से किस्तों में कत्ल किया जा रहा हो, बेईमानी-भष्टाचार-कामचोरी के तीन सूत्रों पर कार्यपालिका का ज्यादातर अमला काम कर रहा हो, सत्य को प्रमाण प्रस्तुत करना पड रहा हो, हर बात का विरोध करने का लक्ष्य बनाने वालों की देश में बाढ आ गई हो तो फिर उसे आने वाला समय में कठिनाइयों के ठहाके लगाने से रोकना असंभव नहीं तो मुश्किल अवश्य ही होगा। ऐसे में अनावश्यक और अप्रासांगिक क्षेत्रों के हो रहे महिमा मण्डन को तिलांजलि देकर प्राथमिकताओं को चिन्हित करना होगा। विरासत के विकृत होते अर्थो पर लगाना होगा अंकुश तभी देश के सुखद कल की कल्पना करना सार्थक हो सकेगा। इस बार बस इतना ही। अगले सप्ताह एक नई आहट के साथ फिर मुलाकात होगी।
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