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।यदि रामायण में कुछ भी विशेष है ! तो वह सब हम लोग भी कर सकते हैं।। स्वामी मैथिलीशरण,,,,,,

 ।लक्ष्मण चरित्र पर केन्द्रित रहेगा इस वर्ष का प्रवचन सत्र।।

बुन्देलखण्ड गैरिज छतरपुर के पुराने परिसर में रामकथा २० फ़रवरी से प्रारंभ होकर २६ फरवरी तक चलेगी।
रामचरितमानस में लक्ष्णम ही एक ऐसे पात्र हैं जो जन्म से लेकर लीला के संवरण तक भगवान के साथ रहे, और अतिसानिध्य में अवज्ञा की कोई संभावना उनको छूकर भी नहीं निकली, उसका मात्र केवल एक ही कारण था, वह यह कि वे सारे संसार में तो किसी से नहीं डरते हैं,पर जिनके साथ वे सदा सर्वदा रहते हैं,जो उनके प्राण से भी बढ़कर हैं उन राम से डरते,
स्वामी जी ने इसको भगवान राम जनकपुर में विश्राम कर रहे हैं उसमें लक्ष्मण जी की जो सेवा निष्ठा और तल्लीनता श्रीराम के प्रति है उसका सजीव चित्र करते हुए कहा कि लक्ष्मण भगवान के चरण दबा रहे हैं, पर चरण सेवा करते समय भी भगवान से डरते डरते चरण सेवा कर रहे हैं।
चापत चरण राम उर लाए,
सभय सप्रेम परम सुचि पाये।
मैथिलीशरण जी ने कहा कि समाज में, परिवार में, व्यवस्था में जब तक व्यक्ति अंदर भय बना रहेगा तब तक मर्यादा बनी रहेगी, ज्योंही व्यक्ति निर्भीक हुआ तब वह कहाँ निर्भीक होना चाहिए कहाँ भयभीत होना चाहिए, इसकी सीमा रेखा को भूल जाता है।
भय और निर्भयता दोनों एक दूसरे से संयुक्त रहकर ही किसी आदर्श की स्थापना कर पाते हैं, दोनों में किसी एक का भी अभाव हो जाये तो व्यक्ति और समाज असुन्तुलन को स्वयं प्रमाणित करता रहेगा, अहंकार को ही अपना दर्शन बताकर वाणी के असंतुलन के कारण जीवन पर्यन्त अपयश का भागी रहेगा।
विवेक के अभाव में व्यक्ति का भाषा के ऊपर से नियंत्रण समाप्त हो जाता है और वह कटुता और अमर्यादित भाषा को ही सत्य और स्पष्टवादिता के नाम पर उपयोग करके शीलवान को आहत करता रहता है।
क्रिया और वाणी में यदि संतुलन न हो तो अविवेक शब्द की व्याख्या को अलग से बनाने की आवश्यकता ही नहीं है।
लक्ष्मण जी ध्यान की वह दिव्य परिणति हैं जिसमें प्रतिपल ईश्वर का साक्षात्कार हो रहा है।
साधारण व्यक्ति ध्यान को कल्पना मानकर मिथ कह सकता है, पर वही ध्यान यदि परम सत्य ईश्वर को केन्द्रीय बनाकर किया जाय तो हमें जीवन व्यवहार और लक्ष्य कुछ अपने परम लक्ष्य साथ प्राप्त हो जायेगा।
लक्ष्मण जी दिन में तो जागृत रहते ही हैं वे रात्रि में भी परम जागृत रहते हैं,
जागने और सोने की गूढ़तम व्याख्या को स्पष्ट करते हुए मैथिलीशरण जी ने कहा कि लक्ष्मण जी ने श्रृंगवेरपुर में निषादराज केवट को कहा था,
मोह निसा सब सोहनिहारा। देखहिं स्वप्न अनेक प्रकारा ।
जेहि जग जामिनि जागहिं जोगी।परमारथी प्रपंच वियोगी।
जानिए तबहिं जीव जग जागा। जब सब विषय बिलाल बिरागा।
लक्ष्मण जी के जीवन में न तो मोह की रात्रि है न कि किसी विषय से तनिक भी उन्हें राग है, बन जाते समय माँ सुमित्रा ने उन्हें कह दिया था, कि,,,
राग रोष इरिषा मद मोहू, जनि सपनेहु इनके बस होहू।
जिन लक्ष्मण ने अपनी माँ सुमित्रा के उपदेश को पूरा का पूरा जीवन में समाहित कर लिया, उसकी संगति में आकर केवट को मोह निद्रा कैसे आ सकती है?
लक्ष्मण जी ने सुमित्रा को धारण कर लिया इसलिए उनको कैकेयी की विस्मृति भी हो गई और राम की उपलब्धि के सुख ने उन्हें कैकेई के प्रति द्वैष मुक्त कर दिया।
सब जगह से अपनी चित्त वृत्ति को समेटकर राममय कर लेना ही श्रीरामचरितमानस की विशेषता है, वह हम सब कर सकते हैं और जीवन में लक्ष्मणजी की तरह हर पल राम के अंग संग रह सकते


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