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भविष्य की आहट / डा. रवीन्द्र अरजरिया देश को चाहिए अधिकारियों की आंखों में आंखें डालकर अन्याय का विरोध करने वाले जनप्रतिनिधि

  देश के नागरिकों को अनुशासनहीनता का पाठ पढाने में राजनैतिक दल महात्वपूर्ण भूमिका निभाने लगे हैं। दलगत रैलियों के नाम पर खुले आम कानून की धज्जियां उडाने का क्रम शुरू हो चुका है। टोल नाकों से लेकर यातायात नियमों को तोडना आज प्रतिष्ठा का पर्याय है। नाकों का ठेकेदार कोई भी हो उसे प्रत्येक दल के लिए मुफ्त में वाहनों का आवागमन सुनिश्चित करना पडता है। रैली में जाने वाले बिना परमिट के ओवर लोड वाहनों पर कानूनी कार्यवाही करने वाले उत्तरदायी अधिकारी उनके  आवागमन हेतु अन्य वाहनों को किनारे पर खडे करने में लगे रहते हैं। आश्चर्य तो तब होता है जब सीमावर्ती शहरों में आयोजित होने वाली रैलियों हेतु भीड जुटाने का दायित्व लेने वाले कथित ठेकेदार दूसरे राज्यों से लालच के आधार पर जनबल दिखाते हैं। इस भीड दूसरे राज्यों से लाने हेतु प्रयुक्त वाहनों का अवैध संचालन ही नहीं होता बल्कि सीमा शुल्क का जैसे नियम भी गौढ हो जाते हैं। मोटर मालिकों से लेकर ट्रेवलिंग कम्पनियों से सहयोग के नाम पर वाहनों लेने की कहानियां भी दबाव की कलम से निरंतर लिखी जा रहीं हैं। रास्तों में स्वल्पाहार से लेकर भोजन तक की व्यवस्थाओं का जिम्मा उस स्थान विशेष के किसी बडे व्यवसायी को सौंपा जाता है। जो न चाहते हुए भी इस कार्य को स्वीकारने हेतु स्वयं को बाध्य पाता है। सत्ता पर काविज होने की लालसा वाले दलों ने जिस तरह से भीडतंत्र का खुला आतंक फैलाना शुरू कर दिया है उसके आगे जहां शासन-प्रशासन पंगु बन जाता है वहीं भीड का हिस्सा बने लोग भविष्य में भी इसी परम्परा को नियमित करने का पाठ सीख जाते हैं। बस यहीं से शुरू होता है कानून की खुले आम धज्जियां उडाने का क्रम। रैली का वाहन चला चुके चालक को भविष्य में फिर कभी पुलिस या आरटीओ से डर नहीं लगता है। उसके मोबाइल में भीड जुटाने वाले कथित ठेकेदार का नम्बर जो होता है। यह ठेकेदार महोदय दलगत राजनीति के एक पैदल होने के बाद भी व्यवस्था के बादशाह पर भी भारी रहते हैं। उनके पास लालच में जकडी हुई लालची भीड, राजनैतिक रसूक और कद्दावर नेता जी का वरदहस्त जैसे हथियार जो हैं। बाद में इन्हीं रैली करने वाले दलों में से किसी एक की सरकार बनेगी और फिर वह सरकारी अधिकारियों से संवैधानिक व्यवस्था और कानून का राज्य स्थापित करने की अपेक्षा करेंगे जबकि उन्होंने स्वंय अपनी रैलियों में लोगों को खुलेआम कानून तोडने, मनमानियां करने और व्यवस्था के रक्षकों को महात्वहीन समझने की सीख दी थी। जोर आजमाइश के इस दौर में पार्टी के बडे नेताओं को भीड के दिग्दर्शन करने वाले धनबल के शहंशाह अन्तोगत्वा चुनावी टिकिट हासिल कर ही लेते हैं। ऐसे में एक समर्पित, योग्य और जुझारू कार्यकर्ता के हिस्से में केवल फर्स बिछाना और धनबल के सिंहासन पर बैठे व्यक्ति की हां-हुजूरी करना ही आता है। वर्तमान में मतदाता पूरी तरह से जागरूक हो गया है। उसे अपने वोट कीमत मालूम है। वह देश, प्रदेश की व्यवस्था को योग्य व्यक्तियों के हाथों में सौंपना चाहता है परन्तु धनबल के आधार पर थोपे गये प्रत्याशियों को केवल पार्टी के आदर्शों, सिध्दान्तों और नेतृत्व के आधार पर स्वीकारने को तैयार नहीं होता। इस बार प्रत्याशियों की व्यक्तिगत छवि का समानान्तर विश्लेषण करके बाद ही मतदाता का निर्णय होता दिख रहा है। राजनैतिक दलों का जनाधार उसके अतीत के कामों से तैयार होता जरूर है परन्तु मतदान होने के लिए दल के चुनाव चिन्ह के साथ-साथ प्रत्याशी की व्यक्तिगत छवि ज्यादा महात्व रखेगी। अपवाद के रूप में थोपे गये प्रत्याशियों की चुनावी विजय के पीछे का गणित अलग है। आयातित प्रत्याशियों के पक्ष में मतदान करवाने हेतु क्षेत्रीय नेताओं को दबाव में लेने, लालच के मायाजाल में फंसाने और भविष्य में लाभ का पद दिलवाने का आश्वासन काम करता है। धनबल का हथियार भी खुलकर प्रयोग में लाया जाता है। देश के अनेक राज्यों में चुनावी बयार निरंतर तेज होती जा रही है। सत्ताधारी दलों से लेकर विपक्षी दलों की रैलियां, पीडियों के प्रति सहानुभूति, संवेदनशील मद्दों को हवा देना, धनबल के आधार भीड जुटाना और भीडतंत्र के आधार पर जनाधार दिखाने की होड लगी है। कहीं राष्ट्रीय नेतृत्व के नाम को भुनाया जा रहा है तो कहीं युवा और ग्लैमर का समुच्चय प्रस्तुत हो रहा है। कोई पारिवार की कुर्बानियों की दुहाई दे रहा है तो कोई जातिवादी-सम्प्रदायवादी समीकरणों को बैठाने में जुटा है। इतिहास गवाह है कि उप-चुनावों के परिणामों में दलों की छवि से कहीं ज्यादा प्रत्याशी की व्यक्तिगत छवि ने काम किया है। लोगों को राष्ट्रीय मुद्दे, साम्प्रदायिक मसले और स्थानीय समस्यायें प्रभावित करतीं है परन्तु अब मतदान के दौरान प्रत्याशियों के मध्य योग्यता, उपलब्धता और क्षमता का भी मूल्यांकन हुआ। यही कारण है कि राष्ट्रीय स्तर पर बेहतर करने वाली पार्टी को भी पराजय का सामना करना पडा। वर्तमान समय में चुनावी हवा का रुख प्रत्याशी के चयन पर ही निर्भर करेगा। ईमानदारा बात तो यह है कि देश में कितने ऐसे जनप्रतिनिधि हैं जो सरकारी अधिकारियों की आंखों में आंखें डालकर बात करने का साहस कर सकते हैं। चुनावी जंग में विजय हासिल करने वाले प्रत्याशी पहले दिन से ही भविष्य में ज्यादा से ज्यादा धनबल संकलित करने में जुट जाते हैं ताकि आने समय की दिखावटी प्रतिस्पर्धा में भीडबल के आधार पर स्वयं को स्थापित किया जा सके। अतीत के झरोखे से देखने पर स्पष्ट होता है कि लाल बहादुर शास्त्री के साथ ही योग्यता का पटाक्षेप हो गया था। आज अधिकांश जनप्रतिनिधियों के अपने कारोबार हैं। कुछ के अपने नाम से हैं तो कुछ के अपनों के नाम से। कुछ के छद्म नामों से भी काम चल रहे हैं तो कुछ डमी नामों का उपयोग कर रहे हैं। इन कारोबारों पर टैक्स चोरी से लेकर अनेक अनियमितताओं के आरोप भी निरंतर लगते रहे। जब ज्यादा हायतोबा मचता है तो जांच का आश्वासन देकर मामले को टालने की कोशिश की जाती रही। ऐसे में जनप्रतिनिधि के दायित्व और कर्तव्य कहीं खो से गये हैं। वहीं पार्टियों को भी स्वयं पर कुछ अधिक ही भरोसा होने लगा है तभी तो गठबंधन के पैतरे आजमाये जा रहे हैं। ऐसे में पार्टियों के साथ लम्बे समय तक वफादारी के साथ काम करने वाले कार्यकर्ताओं पर गठबंधन की शर्तें गाज बनकर गिरतीं हैं। उसके क्षेत्र की सीट पर किसी दूसरे दल का प्रत्याशी ताल ठोकता है और वह उसका समर्थन करने के लिए बाध्य होता है। निकट भविष्य में होने वाले चुनावों में प्रत्याशी की व्यक्तिगत छवि और पार्टी के प्रति निष्ठा ही मतदान के दौरान मूल्यांकन का आधार होगा। पार्टी ने भले ही राष्ट्रीय स्तर पर बडे-बडे मुद्दे सुलझाये हों परन्तु धनबल पर आयातित प्रत्याशी की प्रश्नवाचक छवि उसकी हार का कारण बन सकती है। विपक्ष के साथ भी यही कारक उत्तरदायी होगा। सरल व्यक्तित्व वाले कर्मठ, योग्य और स्थानीय प्रत्याशी के विजयी होने की संभावना का प्रतिशत बहुत अधिक दिख रहा है मगर इसके लिए आपराधिक पृष्ठभूमि और दागदार अतीत का लोप होना आवश्यक है। वर्तमान कारकों का विश्लेषण करने पर एक बात उभर कर सामने आती है कि वर्तमान में देश को चाहिए अधिकारियों की आंखों में आंखें डालकर अन्याय का विरोध करने वाले जनप्रतिनिधि और यह तभी संभव है जब धनबल के सहारे भीडतंत्र को आधार बनाकर पद हथियाने की होड समाप्त होगी अन्यथा थोपे गये प्रत्याशी जनप्रतिनिधि बनकर क्षेत्र के विकास का ठेका लेंगे और फिर ठेकों पर ही होगा समाज के अंतिम छोर पर बैठे व्यक्ति का कथित विकास। बाद में यही कथित विकास, सरकारी आंकडों पर स्वयं की पीठ थपथपाने का काम करेगा। इस बार बस इतना ही। अगले सप्ताह एक नई आहट के साथ फिर मुलाकात होगी।


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