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भविष्य की आहट / डा. रवीन्द्र अरजरिया सडक के आगे धराशाही होती सत्ता की ताकत

लोक का तंत्र प्रायोजित भीड के सामने एक बार फिर असहाय हो गया। कथित किसान आंदोलन के पीछे से वास्तव में दलगत राजनीति और सीमापार के षडयंत्रकारियों की विध्वंशात्मक चालें एक फिर कामयाब हो गईं। देश के प्रधानमंत्री ने किसानों के वास्तविक कल्याण को ऊंचाइयों तक पहुंचाने वाले कानून को वापिस लेने की घोषणा करके देश में पनप रहे माफियावाद को न केवल बढावा दिया है बल्कि भविष्य में कानूनों का खुला मुखौल उडाने वालों को हौसला भी प्रदान कर दिया है। ऐसे में धनबल पर कथित किसान नेता का तमगा लटकाने वाले राकेश टिकैत, मुस्लिमों के स्वयंभू नेता ओबैसी, घुसपैठियों की दम पर सरकार बनाने वाली ममता तथा परिवारवादी परम्परा पर पार्टी प्रमुख  बने लोग आने वाले समय में भी जनता के समर्थन से बनने वाली सरकारों को धनबल और धनबल से जुटे जनबल की दम पर भीडतंत्र के आगे घुटने टेकने पर मजबूर करेंगे। शाहीनबाग जैसे काण्ड आने वाले समय में अधिक व्यापक होकर सामने आयेंगे। पत्थरबाजों को मासूम कहने वाले सीना चौडा करके दहाडेंगे। जेएनयू जैसे शिक्षा के मंदिरों में छात्रों को देशद्रोह का पाठ पढाकर कन्हैया कुमार जैसों का अनुयायी बनाया जायेगा। अब तो टुकडे-टुकडे गैंग के कंधे पर रखकर लाल सलाम से लेकर हरे झंडे ने गोलियां दागना शुरू कर दी है। पूर्वोत्तर राज्यों में फिर से आतंक ने सिर उठाना शुरू कर दिया है। खालिस्तान की मांग उठाने वाले देशद्रोही लंदन में बैठकर नये गिरोह के साथ सक्रिय होने लगे हैं। कश्मीर में अशांति फैलाने वाले पाकिस्तानी नागरिक अपनी संख्या बढाने में लगे हैं। पैसों के लालच में भारतमाता की अस्मिता का सौदा करने वालों की संख्या निरंतर बढती जा रही है। जयचन्दों की जमात लाखों से निकल कर करोडों में पहुच चुकी है। इन सबके पीछे है एकलवाद के सिध्दान्त पर स्थापित सुखधर्म की परिकल्पना। संयुक्त परिवारों का विघटन, एकल परिवारों की स्थापना, सनातन परम्पराओं का लोप, मानवीयता की प्रदर्शन तक सीमित होती भावना, समाजसेवा के नाम पर दिखावे का बोलवाला, विलासता के संसाधनों की होड, संचय की प्रवृति, असुरक्षा की भावना जैसे कारकों के मध्य राष्ट्रधर्म कहीं खो सा गया है। ईमानदाराना बात तो यह है कि राष्ट्रधर्म जैसी कोई व्यवस्था हमारे संविधान में दी ही नहीं गई थी। उसके स्थान पर अभिव्यक्ति की आजादी, निजिता को सार्वजनिक करने की छूट, जातिगत मुद्दों का रेखांकन, आरक्षण की व्यवस्था, वर्गों में विभाजित करने वाले कारक, क्षेत्रवाद से लेकर भाषावाद तक को बढावा देने जैसे अनेक अनुच्छेदों ने जहां आम आवाम के मध्य खाई पैदा की है वहीं माफियागिरी में महारत हासिल करने वालों को संदेह की आड में सुरक्षा भी मुहैया करायी है। तभी तो देश आज अनेक भागों में विभक्त हो चला है। मनमानियों का तांडव सरेआम होने लगा है। व्यवस्था लाचार बनी मुंह ताकती रह जाती है। सडक के आगे धराशाही होती सत्ता की ताकत आज आत्म मूल्यांकन की आवश्यता महसूस कर रही है। अब धारा 370, सीएए, आरक्षण जैसे मुद्दों को हवा दी जायेगी। भीडतंत्र के तूफानी हो चुके मनसूबों को धारदार बनाकर कानून के पंख कतरे जायेंगें और फिर चंद लोगों के इशारों पर धनबल से एकत्रित भीड, उस भीड में मौजूद असामाजिक तत्वों का बाहुल्य और फिर मनमानियों की मनाही पर खुले तांडव की खूनी प्रस्तुति होते देर नहीं लगेगी। लोकतंत्र के विकृत होते मायने यदि आने वाले समय में स्वयं के रक्त से प्यास बुझाने की स्थिति में पहुंच जायें तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए। मोदी जैसे विश्व व्यक्तित्व को प्रकाश पर्व के बहाने किसानों के हितों को संरक्षण देने वाले कानूनों को वापिस लेने की घोषणा करना पडी तो सत्य मानिये कि इसके पीछे अनेक कारक उत्तरदायी होंगे। किसानों तक कानून की वास्तविकता न पहुंच पाने का दर्द समेटे देश के प्रधानमंत्री ने जिन शब्दों और शब्दों के उच्चारण की भाव-भंगिमा में कानून वापिसी की घोषणा की, वह सहज नहीं थी। यूं तो इस के पीछे एक दर्जन से अधिक कारकों की जुगाली चौपालों से चौराहों तक हो रही है। उत्तरप्रदेश सहित अनेक राज्यों के चुनावों को देखते हुए कानून वापिसी का फैसला पार्टी के दवाव और संघ के इशारे पर लेने की अटकलें भी तेज हैं। चर्चाओं में तो यहां तक है कि कुछ विदेशी ताकतों ने भी इस मुद्दे पर अप्रत्यक्ष रूप से दखल दिया है। मंडी माफियों से लेकर इंस्पेक्टर राज के हिमायतियों की भूमिका को भी नकारा नहीं जा सकता। पंजाब के अनेक एनआरआई की भागीदारी भी कथित किसान आंदोलन के साथ कही-सुनी जा रहीं हैं। कारण चाहे जो भी रहे हों परन्तु कानून की वापिसी का संदेश किसी सकारात्मक प्रस्तुति के रूप में तो कदापि नहीं देखा जा सकता। इस सप्ताह बस इतनी ही। अगले सप्ताह एक नई आहट के साथ फिर मुलाकात होगी।


 

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