भविष्य की आहट / डा. रवीन्द्र अरजरिया राजशाही की पैत्रिक विरासत का गणतांत्रिक स्वरूप
देश में व्यक्तिगत स्वार्थपरिता निरंतर चरम सीमा की ओर बढती जा रही है। राजनैतिक चरित्र में पतन की गति में इजाफा हो रहा है। दलगत राजनीति की दुर्गन्ध अब राष्ट्र के सर्वोच्च पद की गरिमा तक को प्रभावित करने का प्रयास कर रही है। बंगाल की ममता सरकार के मंत्री के व्दारा राष्ट्रपति पर की जाने वाली शर्मनाक टिप्पणी को इसी क्रम में देखा जा रहा है। इसके पहले भी राष्ट्राध्यक्ष पर बंगाल की मुख्यमंत्री के चहेतों ने अभद्र वक्तव्य दिये जाते रहे हैं, जिस पर कोई कठोर कार्यवाही न होने से लोगों के हौसले बढ रहे हैं। राजनैतिक दलों की वास्तविक सोच, आन्तरिक सिध्दान्त और वास्तविक कार्ययोजनायें निरंतर उजागर होने के बाद भी आम आवाम की व्यक्तिगत स्वार्थवादिता पर राष्ट्रवादी दृष्टिकोण विजय प्राप्त नहीं कर सका। आतंकवाद के पोषक और टुकडे-टुकडे गैंग के संरक्षकों के टुकडों के लालच में अनेक खद्दरधारी अपने ईमान को गिरवी रखते जा रहे हैं। कोई हिन्दू-मुसलमान के मध्य खूनी होली देखने की ललक से षडयंत्र कर रहा है तो कोई हिन्द्ू-सिख के मध्य अग्निरेखा खींचने में लगा है। कभी भोले-भाले हिन्दुओं को बरगालकर ईसाई बनाने की मुहिम चल रही है तो कहीं अतीत का जातिवादी दंश दिखाकर बौध्द बनाने का क्रम चल निकला है। कुल मिलाकर हिन्दुओं को कोसने, उनकी जीवन जीने की शैली पर प्रश्नचिन्ह अंकित करने और उनकी आस्था पर कुठाराघात करने का फैशन चल निकला है। इस फैशन को अपनाने वालों को बुध्दिजीवी होने का तमगा देकर अंग्रेजों व्दारा अपनायी गई 'सरÓ की परम्परा को ही आगे बढाया जा रहा है। देश के अन्दर चल रही इन कुटिल चालों में सीमापार के देशों ने अब खुलकर दखल देना शुरू कर दिया है। कहीं ड्रेगन के जासूस लामा बनकर अध्यात्मिक आधार का दुरुपयोग करने की फिराक में हैं। तो कहीं इस्लाम के नाम पर पाकिस्तान का झंडा बुलंद किया जा रहा है। विष कन्याओं की फौज तैयार करके हिन्दुस्तान के विरुध्द जहरीली चालों से कश्मीर फतह करने की फिराक में बैठी सीमापार की सरकार नित नये शगूफे फैला रही है। अल्पसंख्यकों पर जुल्म करने वाले देश अब भारत पर मानवाधिकार की आड लेकर निशाना साधने लगे हैं। ऐसे में दुनिया को उसी की भाषा में जबाब देने की हिम्मत के साथ राष्ट्र को नित नई ऊंचाइयों पर पहुंचाने वाले लोगों को देश के अन्दर ही उलझाकर रखने की विदेशी चालों का क्रियान्वयन करने में जयचन्दों की फौज जुटी है। कनाडा में बैठकर खालिस्तान का राग अलापने वालों से लेकर पाकिस्तान और दुबई की सरजमीं से भारत को मुस्लिम राष्ट्र बनाने वालों तक को संरक्षण देने वाले सफेदपोशों की जमात का लालची सिक्का देश में खूब चल रहा है। स्वाधीनता के समय से ही चांदी की चम्मच का चमत्कार प्रभावी परिणाम लाता रहा है। भौतिक सुख, अस्थाई सम्मान और खोखले सुख के सहारे जीने वाले लोग आज एक पल की संतुष्टि के लिए भविष्य को भी दांव पर लगाने से भी नहीं चूक रहे हैं। ऐसे ही लोगों के सहारे आम आवाम को मृगमारीचिका के पीछे दौडाया जा रहा है। अतीत के दु:खद इतिहास को हाशिये पर पहुंचाकर चाटुकारों के माध्यम से लिखवाये गये झूठे दस्तावेजों पर स्वाधीनता के बाद से ही प्रमाणिकता की सरकारी मुहर लगा दी गई थी, जिसकी विना कर वर्तमान मेें छाती पीटी जा रही है। यह सब राजनैतिक दलों की सोची समझी चालों का ही परिणाम रहा जो देश में अनेक स्थानों पर बहुसंख्यकों की स्थिति आज अल्पसंख्यक हो चुकी है परन्तु उन्हें अल्पसंख्यकों की सुविधाओं से निरंतर वंचित रखा जा रहा है। राजनैतिक दलों के वित्तीय कारोबारों को सूचना के अधिकार से दूर रखकर उन्हें काले कारनामों की खुली छूट देना, राष्ट्र हित में कदापि नहीं कहा जा सकता। यह वह कोना है जहां से दलगत राजनीति के खेमों का परिवारवाद शिखरोन्मुख हो रहा है। यह कहना अतिशयोक्ति न होगा कि राजशाही की पैत्रिक विरासत का गणतांत्रिक स्वरूप बनते राजनैतिक दल आज स्वार्थपूर्ति का साधन मात्र बनकर रह गये हैं। अधिकांश पार्टियों पर परिवादवाद का ही परचन लहरा रहा है। अयोग्य परिवारजन भी अपने खास सिपाहसालारों की दम पर पार्टी का मुखिया पद हथिया लेते हैं। फर्श बिछाने वाला प्रतिभाशाली कार्यकर्ता जीवन के अन्तिम सोपानों तक माला पहनाने वालों की सूची में शामिल होने के लिए ही जद्दोजेहद करता रहता है। दूसरी ओर दल के मुखिया के बाद उसका नासमझ बच्चा और अनुभवहीन धर्मपत्नी ही संगठन की बागडोर सम्हालने लगतीं हैं। दल के प्रारम्भिक काल में खून-पसीना एक करने वाले सदस्यों को केवल और केवल खास होने का तमगा ही मिल पाता है। इस तरह की व्यवस्था में रचे-बसे दलों में स्वयं का कद बढाने के लिए चल रही आन्तरिक कलह का भी बाहुल्य है, किन्तु समान हितों के कारण वह हांडी कभी-कभी ही चौराहे पर फूटती है। सत्ता को हासिल करने वाले अधिकांश लोग अब उसे सेवा के रूप में न लेकर, व्यक्तिगत सुख के संसाधन जुटाने का अवसर मान बैठे हैं। ज्यादातर लोगों की कामचोरी वाली मानसिकता सतत बढती जा रही है। इसी कारण व्यापार, व्यवसाय, धंधा, उत्पादन की मेहनतकश दिशा में न बढकर, युवाओं का रुझान केवल और केवल नौकरी की ओर बढ रहा है। नौकरी भी सरकारी होना चाहिए ताकि कामचोरी और स्वार्थी नियत पर अंकुश लगाने वालों से कर्मचारी-अधिकारी संगठनों के समूह बल के आधार पर निपटा जा सके और यदि इस माध्यम से सफल नहीं हुए, तो फिर न्यायालय के दरवाजे तो चौबीसों घंटे खुले ही हैं। ऐसे में देश को विकास की ओर ले जाने का दम भरने वाले दलों के अतीत, वर्तमान और भावी वायदों की राष्ट्रवादी सोच के साथ विस्त्रित पडताल के बाद ही स्वमत का निर्धारण करना होगा तभी राष्ट्र की आन्तरिक स्थिति सुखद हो सकेगी। इस बार बस इतनी ही। अगले सप्ताह एक नई आहट के साथ फिर मुलाकात होगी।
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