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भविष्य की आहट / डा. रवीन्द्र अरजरिया आवश्यक हो गया है धार्मिक सौहार्द स्थापना आयोग का गठन

 उत्तर प्रदेश के देवबंद में जमीयत उलेमा-ए-हिन्द के मुखिया महमूद असद मदनी ने जलसे के आगाज में एक हजार सद्भावना संसद के आयोजन का ऐलान करके सकारात्मक संदेश दिया। उन्होंने जस्टिस एण्ड एम्पावरमेन्ट इनीशिएटिव फार इण्डियन मुस्लिम के रूप में एक विभाग बनाने की भी घोषणा की। भावुकता भरे अंदाज में उन्होंने कहा कि हम तकलीफ बर्दाश्त कर लेंगे लेकिन देश का नाम खराब नहीं होने देंगे। अगर जमीयत उलेमा शान्ति को बढावा देने और दर्द, नफरत सहन करने का फैसला करते हैं तो ये हमारी कमजोरी नहीं, ताकत है। जलसे में इस्लामोफोबिया सहित अनेक ज्वलंत मुद्दों को उठाया गया। वर्तमान हालातों का विश्लेषण करते हुए सत्ताधारी दलों को कोसा गया, मानवाधिकारों व लोकतांत्रित मूल्यों को रेखांकित किया गया और जोर दिया गया 14 मार्च को इस्लामोफोबिया रोकथाम दिवस मनाने पर। इस दौरान सन 2017 में प्रकाशित लॉ कमीशन की 267वीं रिपोर्ट की सिफारिशों को लागू करने की बात कही गई। हिंसा उकसाने को लेकर कानून बनाने, दोषियों को सजा दिलाने तथा अल्पसंख्यकों को सामाजिक-आर्थिक रूप से अलग-थलग करने के प्रयासों पर रोक लगाने की मांग उठाई गई। संगठन के राष्ट्रीय सचिव मौलाना नियाज फारुकी ने कहा कि ऐसा कोई विवाद न हो जिससे हमारे रिश्ते टूटें, फिर चाहे मंदिर और मस्जिद टूटे या बने इससे फर्क नहीं पडेगा। इस जलसे में 25 राज्यों से 1500 जमीयत सदस्यों सहित कुल 3000 लोगों के भाग लेने का अनुमान लगाया गया। तीन सत्रों में चलने वाले आयोजन में मुस्लिम मुद्दों के अलावा राष्ट्रवाद छाया रहा, भावुकता भरे वक्तव्य दिये जाते रहे और अप्रत्यक्ष में भाजपा सरकारों को कोसा जाता रहा। यदि इस तरह के प्रयास धरातल पर साकार होते हैं तो निश्चिय मानिये कि हिन्दुओं की धर्म संसद में भडकाऊ भाषण देने वालों पर भी लगाम कसते देर नहीं लगेगी। सद्भावना संसद के नाम से जिन एक हजार आयोजनों का निर्णय लिया गया है, उनको लेकर समाज की जिज्ञासायें तेज होती जा रहीं है। फिलहाल गैर मुस्लिम समाजों में इस्लाम की कट्टरता के मायने हिंसा, जुल्म और मनमानी के रूप में स्थापित होने लगे हैं। यह सत्य है कि इन दिनों विश्वास की नींव कमजोर होने लगी है। दूसरे धर्म के पडोसी को भी संदेह की नजरों से देखा जाने लगा है। अंतरंग मित्रों के मध्य भी शंकायें जन्म लेने लगीं हैं। यह सब यूं ही नहीं हुआ। आज के माहौल के लिए अतीत की घटनायें, उनके मौजूद चिन्ह और संविधान में की गई विभेदकारी व्यवस्था ही उत्तरदायी है। मंदिर के एक भाग में मस्जिद देखने वाला श्रध्दालु आक्रान्ताओं के जुल्म के प्रति आज भी आक्रोशित हो उठता है। हर दिन मंदिर जाने वालों को हमेशा ही अतीत की गुलामी याद आती है और दूसरी ओर नमाज के लिए पहुंचने वाले अपने पूर्वजों पर गर्व करते हुए सीना चौडा करने लगते हैं। देश में लगभग पांच हजार ऐसे आस्था के केन्द्र होंगे जहां मंदिर को तोडकर आक्रान्ताओं ने मस्जिद बना डाली थी। उस समय का जुल्म एक वर्ग में आज भी सिहरन पैदा कर देता है। ऐसा रोज घटता है। हजारों लोगों की भावनायें रोज आहत होतीं हैं। इन मुद्दों को स्थाई और सर्वमान्य समाधान होना आवश्यक हैं। जो कि मिल बैठकर ही ढूंढा जा सकता है। मगर मंशा पारदर्शी होना चाहिए, नियत साफ होना चाहिए और होना चाहिए दूसरे के प्रति सम्मान की भावना। केवल मथुरा, काशी या भोज जैसे कुछ स्थानों को न्यायालय में पहुंचाने वाले आगे चलकर अन्य स्थानों को भी प्रकाशित करेंगे। सरकार को देश में आपसी भाईचारे की मजबूती के लिए सभी धर्मों के सकारात्मक सोच रखने वालों को चिन्हित करके धार्मिक सौहार्द स्थापना आयोग का सीमित समय हेतु गठन करना चाहिए जो अपनी आख्या निर्धारित समय में सरकार के खुले पटल पर रखे। रोज-रोज की आहत होती भावनाओं का जब तक स्थाई समाधान नहीं निकलेगा तब तक हमेशा के लिए अपनेपन की गंगा-जमुनी संस्कृति की स्थापना असम्भव नहीं तो कठिन अवश्य है। देश के बटवारे के समय ही इन मुद्दों पर विचार करना चाहिए था। गुणोत्तर दर से बढने वाली आस्था की भावनाओं के पटाक्षेप पर भी विचार किया जाना चाहिए था। संविधान का निर्माण और समय-समय पर तुष्टीकरण हेतु बनाये जाने वाले कानूनों ने ही समय के साथ वैमनुष्यता के पांव फैलाये हैं। सीमापार से किये जाने वाले षडयंत्रों के बाद भी अभी परिस्थितियां नियंत्रण में हैं। देवबंद जलसे के सकारात्मक पक्षों को रेखांकित करते हुए अन्य विवादित कारकों को हाशिये के बाहर करना होगा। आयोजन में आपसी सौहार्द का वातावरण निर्मित करने के लिए आधार शिला रखी गई। मगर इस शिला में भी छेद करने वाले अपने नये षडयंत्र की परिणति हेतु निश्चित ही सक्रिय होंगे। खासतौर पर सीमापार के आकाओं के टुकडाखोर चमचों की जमात नये निर्देश पाकर जलसे की सकारात्मकता को तार-तार करने की फिराक में होंगे। लाल सलाम करने वाले स्वयं भू बुध्दिजीवियों की टुकडी अपनी अलग खिचडी पका रही होगी। इस जलसे में रंगे सियारों की भी कमी नहीं थी जो आपसी गुफ्तगू में जहरीले मंसूबे जाहिर करते रहे। जलसे में मुसलमानों के हालतों की समीक्षा करते हुए उनके ऊपर होने वाले जुल्मों को गिनाया जाता रहा परन्तु सीमापार के इशारे पर षडयंत्र करने वालों का जिक्र तक नहीं किया गया। ओबैसी जैसे भडकाऊ भाषण देने वाले मुस्लिम नेताओं पर लगाम लगाने का कठोरता से प्रयास नहीं हुआ। आतंकवाद, कट्टरवाद, लव जेहाद, क्रूरता, आक्रामकता जैसे मुद्दों पर को हाशिये पर छोड दिया गया। कश्मीरी पंडितों के पलायन, धार्मिक आयोजनों में हिंसा, धर्म के नाम पर मनगढन्त व्याख्यायें, कुरान के वास्तविक मायनों को छुपाकर कट्टरता का बीजरोपण, भेदभाव वाले आचरण जैसी स्थितियों को भी अदृष्टिगत नहीं किया जा सकता। इस दिशा में केवल मुस्लिम समाज ही उत्तरदायी है, ऐसी भी नहीं है। क्रूर कट्टरता का उन्माद फैलाने वाले सभी धर्म के लोगों को चिन्हित करके उनके विरुध्द प्रत्यक्ष रूप में तत्काल कडी कार्यवाही की जाना चाहिये। यही मौका है जब सरकार देवबंद जलसे के राष्ट्रवादी परिणामों की रोशनी में धार्मिक सौहार्द स्थापना आयोग का गठन करके सबका साथ, सबका विकास और सबका विश्वास प्राप्त कर ले। इस बार बस इतना ही। अगले सप्ताह एक नई आहट के साथ फिर मुलाकात होगी


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