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सांस्कृतिक विरासत में नयी पीढ़ी की आस्था जगाने के पक्षधर हैं भागवत कृष्णमोहन झा/

 राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत ने हमेशा ही  प्राचीन भारतीय  गौरव से देश की नयी पीढ़ी को परिचित कराने की आवश्यकता पर जोर दिया है। संघ प्रमुख विभिन्न मंचों से अपने विद्वतापूर्ण व्याख्यानों के माध्यम से निरंतर  यह कहते रहे हैं कि विभिन्न स्तर पर शिक्षण संस्थानों के पाठ्यक्रम में उन  विषयों का भी समावेश किया जाना चाहिए जिसके अध्ययन से छात्र  भली-भांति यह जान सकें कि  हमारे देश को विश्व गुरु क्यों कहा जाता था । विगत दिनों उन्होंने न ई दिल्ली स्थित इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र में शोधपरक ग्रंथ द्विरूपा सरस्वती पुस्तक के विमोचन समारोह में मुख्य अतिथि की आसंदी से कहा कि हमारी गौरवपूर्ण  सांस्कृतिक प्राचीनता की पुनर्स्थापना के लिए सांस्कृतिक धरोहरों का प्रमाणीकरण का आवश्यक है क्योंकि नई पीढ़ी को जब कोई बात बताई जाती है तो वह सहज ही स्वीकार नहीं करती ।वह उसकी सत्यता का प्रमाण चाहती है  । संघ प्रमुख ने स्पष्ट कहा कि न ई पीढ़ी को जब हम अपनी प्राचीन गौरव शाली संस्कृति के बारे में बताते हैं तो वह उसके लिए  प्रमाण मांगती है और यह प्रमाणीकरण केवल निरंतर शोध से ही संभव हो सकता है।  हमें भारत को फिर से विश्व गुरु बनाना है और वही सांस्कृतिक गौरव अर्जित करना है तो इसके लिए  हमें अपनी वही सनातन प्राचीनता की पुनर्स्थापना करनी होगी। सरसंघचालक ने इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र द्वारा प्रकाशित पुस्तक द्विरूपा सरस्वती को एक शोधपूर्ण ग्रंथ बतात  हुए कहा कि इस  ग्रंथ में सरस्वती नदी के बारे में प्रचलित भ्रांतियां को दूर करने के उद्देश्य से  तथ्यपरक जानकारी प्रस्तुत की गई है। सरस्वती नदी के  कार्यक्रम में मौजूद पूर्व केंद्रीय मंत्री डाॅ मुरली मनोहर जोशी ने सरसंघचालक के विचारों के प्रति अपनी सहमति व्यक्त करते हुए इस बात पर क्षोभ व्यक्त किया कि बुद्धिजीवियों के एक वर्ग द्वारा भारत की समृद्ध सांस्कृतिक विरासत और गौरवशाली अतीत पर सवाल खड़े किए । इतिहासकार सदैव यह कहते रहे  हैं कि भारत के लोग आर्य हैं जो दूसरे देशों से आए हैं परंतु उन्हें यह नहीं मालूम कि वे  किस देश से आए। डा मुरली मनोहर जोशी ने कहा कि केंद्र में जब स्व अटल बिहारी वाजपेई प्रधानमंत्री थे तब इतिहास की तथ्यात्मक गलतियों को सुधारने की मांग उठी और संसद में इस विषय पर चर्चा हुई और यह उसी का नतीजा है कि अब हमारी सांस्कृतिक धरोहरों और गौरवशाली अतीत के प्रमाण मिलने का क्रम प्रारंभ हो गया है और इस कार्य में निरंतर प्रगति हो रही है।

           सरसंघचालक ने अपने सारगर्भित भाषण में सरस्वती नदी की महिमा पर प्रकाश डालते हुए कहा कि समाज में सरस्वती के प्रति एक देवी और एक नदी के रूप में  अगाध श्रद्धा है। इसीलिए इस पुस्तक को नाम द्विरूपा सरस्वती नाम दिया गया है ।यह पुस्तक सरस्वती नदी के इतिहास के प्रामाणिक दस्तावेजों का संकलन है। प्रमुख ने कहा कि सरस्वती नदी के तट पर हमारी संस्कृति के एक बड़े भाग  का विकास हुआ है । इसके प्रवाह पर के तीन किलोमीटर मार्ग के प्रमाण मिल चुके हैं । अब इसके उद्गम स्थल और बाकी मार्ग का पता लगाने के लिए निरंतर शोध जारी रखने की आवश्यकता है। इस मौके पर संघ प्रमुख ने वर्तमान शिक्षा प्रणाली की चर्चा करते हुए कहा कि आधुनिक शिक्षा छात्रों में आस्था नहीं जगाती बल्कि हश्र चीन का प्रमाण मांगने के लिए प्रेरित करती है। यह काम शोध के माध्यम से ही हो सकता है । रामसेतु के बारे में भी ऐसा ही हुआ । गहन शोध के फलस्वरूप जब रामसेतु के प्रमाण मिलने लगे तो नयी पीढ़ी भी उसे स्वीकार करने के लिए तैयार हो गई। सरसंघचालक ने इस बात पर विशेष जोर दिया गया कि भारत का गौरवशाली अतीत और सांस्कृतिक धरोहरों से यह स्पष्ट है कि पुनः विश्वगुरु का गौरव हासिल करने के लिए सनातन प्राचीनता को पुनर्स्थापित करने की आवश्यकता है और यह काम निरंतर शोध से संभव है । 

             द्विरूपा सरस्वती पुस्तक का संपादन इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र के ट्रस्टी डॉ महेश शर्मा और मानद सचिव सच्चिदानंद जोशी ने किया है । संपादक द्वय पुस्तक की विषय वस्तु की जानकारी देते हुए कहा कि सरस्वती नदी हमारे देश में  आठ हजार साल  पहले बहती थी और महाभारत काल में यह विलुप्त होने लगी ।ऐसा क्यों हुआ  उस बारे में और इससे जुड़े सभी प्रश्नों के उत्तर खोजने का प्रयास इस पुस्तक में किया गया है।


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