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भविष्य की आहट / डा. रवीन्द्र अरजरिया धोखे की बुनियाद पर ही सहयोग के आश्वासन का महल खडा करने में माहिर है अमेरिका?

    दुनिया में दादागिरी का जमाना एक बार फिर लौटने लगा है। कहीं धर्म की कट्टरता के नाम पर तो कहीं नीतिगत मुद्दों की आड में शक्ति का खुलकर उपयोग हो रहा है। संयुक्त राष्ट्र संघ जैसी संस्थायें, शक्ति सम्पन्न राष्ट्र और शान्ति के स्वयंभू मसीहा किये गये कार्यों पर अपनी पीठ खुद ही थपथपाते रहते हैं। अफगानस्तान में कट्टरपंथियों का अत्याचार अभी भी थमने का नाम नहीं ले रहा है। पाकिस्तान जैसे राष्ट्र उसके पक्ष में विश्व समुदाय को लाने के लिए जी-जान से जुटे हुए हैं। समूचा विश्व अपनी खुली आंखों से अफगानियों की चीखें सुनता रहा, मौन बना रहा और अब अफगानियों की लाशों पर से गुजरने वाले तालिबान के साथ नरम रुख भी अख्तियार करने लगा है। पाकिस्तानी सेना जिस तरह से तालिबान को सहयोग करती आ रही है, वह किसी से छुपा नहीं है। कट्टरता के भीषण तांडव के बाद आज अफगानस्तान के मूल नागरिक अपने ही देश में गुलामों जैसी जिन्दगी जीने पर विवश हैं। उनकी आहों को निरंतर नजरंदाज करना, विश्व के लिए आने समय में कट्टरपंथियों के जुल्म को आमंत्रित करने जैसा है। आईएसआईएस जैसे आतंकी संगठनों का नेटवर्क पूरी दुनिया में फैल चुका है। कट्टरता ने अपनी शोषणकारी नीतियों को धर्म के लिबास में पेश किया और इस्लामिक देशों के संगठन ने मौन धारण कर लिया। नासूर बन चुके इस घाव का मवाद निरंतर रिस रहा है कि तभी यूक्रेन के नागरिकों की चीखों से दुनिया दहलने लगी। रूस ने अपनी दूरगामी नीतियों के तहत चाल पर चाल चलने की गति को तेज करते हुए बारूद की भाषा में संवाद शुरू कर दिया। जीवित शरीरों की आत्मा बाहर भागने पर विवश होने लगी। मौत के कथानक जीवित हो उठे। अमेरिका ने पहले तो यूक्रेन के साथ खडे होने का आश्वासन दिया और जब युध्द का बिगुल बज उठा तो उसी सहायता के लिए अपनी सेना भेजने से मना कर दिया। ऐसा ही ब्रिटिश सहित अनेक देशों ने भी किया। प्रतिबंध लगाने की बात कहकर अपना पडला झाडे वालों ने वास्तव में मानवता को धोखा ही दिया है। यदि शुरूआती दौर में ही अमेरिका व्दारा यूक्रेन को साहस, सहयोग और समर्थन देकर उकसाया न गया होता तो बारूद की भाषा के स्थान पर शब्दों की जुगाली हो रही होती। शक्तिशाली शत्रु आइना दिखाने के लिए अमेरिका ने यूक्रेन जैसे राष्ट्र को बलि का बकरा बना दिया। ऐसा ही कृत्य अमेरिका ने अफगानस्तान मेें भी किया था। सेना की वापिसी के बाद जानबूझकर अपने अतिआधुनिक सैन्य उपकरणों वहां छोडकर तालिबान को और अधिक मजबूत किया गया ताकि वह निरीह अफगानियों पर मनमाना जुल्म कर सके। इन अतिआधुनिक सैन्य उपकरणों के लिए पहले से ही पाकिस्तान की सेना को संयुक्त अभ्यास के दौरान प्रशिक्षित किया जा चुका था। दुनिया के सामने एक बार फिर अमेरिका की षडयंत्रकारी नीतियां उजागर हो चुकीं है। वर्तमान समय में चीन के साथ चल रही उसकी बंदर-घुडकी वाली मुहिम हाथी के बाहरी दांत बनकर रह गई है। चीन का विरोधी होने का दिखावा करके अमेरिका ने भारत को उकसाने की उस समय पुरजोर कोशिश थी, जब भारत का चीन के साथ सीमा विवाद चरम पर था और दौनों देशों की सेनायें आमने-सामने आ चुकीं थी। यदि भारत ने अपनी दूरदर्शी नीति के अनुसार स्वयं की दम पर कार्यवाही न की होती, तो आज हमारे देश में भी युध्द का बिगुल बज रहा होता और अमेरिका केवल अपने सैन्य उपकरणों से लैस जहाजों, सैनिकों को हाई अलर्ट और सहयोग की बातें में ही समय गुजाता। ऐसी ही स्थिति पाकिस्तान के साथ भारत के संबंधों को लेकर निर्मित की गई थी जिसका शिकार होकर पडोसी को चीन की कठपुतली बनना पडा। क्या धोखे की बुनियाद पर ही सहयोग के आश्वासन का महल खडा करने में माहिर है अमेरिका, यह प्रश्न आज पूरी दुनिया में अपने-अपने ढंग से चर्चित हो रहा है। ऐसी ही स्थिति कोरोना वायरस को लेकर डब्ल्यूएचओ की भी रही है, जो चीन की कठपुतली बनकर पूरी दुनिया को निरंतर गुमराह करता रहा। ऐलोपैथी से जुडे दवा माफियों की विश्वव्यापी गैंग ने चीन के माध्यम से डब्ल्यूएचओ के कन्धे पर रखकर गोलियां दागनी शुरू कर दीं थी। उस समय आयुर्वेद, होम्योपैथी, यूनानी, नेचरोपैथी और सिध्दा जैसी पध्दतियों के कारगर फार्मूलों पर आपत्तियां दर्ज करके उन्हें हाशिये पर पहुंचा दिया गया था। धनबल के आधार पर जनबल पैदा करने का पुराना मंत्र आज नये रूप में खडा हो गया है। अमेरिका, चीन, रूस, फ्रांस और ब्रिटेन ने तो वीटो जैसे हथियार से स्वयं को सुरक्षित करते हुए गुटबाजी को ही हवा दी है। यह देश आपस में धमकी देने तक ही सीमित रहते हैं। यह धमकी भी उनकी सैन्य उपकरणों की बिक्री से मुनाफा कमाने की नीति का ही एक अंग है। विकासशील देशों को आत्म-सम्मान का अहसास करने वाले यह वीटो सम्पन्न देश हमेशा ही मुसीबत में खडे रहने का आश्वासन देते हैं, हथियारों की बिक्री करते हैं और युध्द का बिगुल बजते ही हाथ खडे करके केवल शब्दों के ही बाण चलाते रहते हैं। ऐसे देशों के साथ भारत ने अपनी नीतिगत शक्ति, सैन्य ताकत और कूटनैतिक गतिविधियों के समुच्चय से विजय प्राप्त करने की दिशा में मील का पत्थर गाड दिया है। विश्व मंच पर आज देश का परचम गर्व के साथ लहरा रहा है। ऐसे में यदि हम जाति, धर्म, क्षेत्र, सम्प्रदाय जैसे कारकों से बाहर निकलकर राष्ट्रवादी मानसिकता के परिचायक बन जायें तो आने वाले समय में भारत को विश्व गुरु बनने से कोई नहीं रोक सकता। इस बार बस इतना ही। अगले सप्ताह एक नई आहट के साथ फिर मुलाकात होगी।


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