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।। भारतीय राजनीति के युगदृष्टा: पं. दीनदयाल उपाध्‍याय ।।

 



अति सामान्य दिखने वाले इस महान व्यक्तित्व में कुशल अर्थचिन्तक, संगठनशास्त्री, शिक्षाविद्, राजनीतिज्ञ, वक्ता, लेखक व पत्रकार आदि कितनी ही प्रतिभाएं समाहित थीं। यह बात अलग है कि प्रमुख रूप से उनका संगठन कौशल्य ही अधिक उजागर हो सका।भारतीय राजनीति में सिद्धान्‍तों के आधार पर अपनी अलग छाप बनाने वाले पं. दीनदयाल उपाध्‍याय जी का विचार दर्शन आज भी प्रासंगिक है। आत्‍मनिर्भर भारत एवं स्‍वदेशी व स्‍वावलंबन की बात उनके मूल चिंतन में सन् 1952 के विभिन्‍न भाषणों एवं लेखों में प्रस्‍तुत किया था। केन्‍द्र में भारतीय जनता पार्टी की श्री नरेन्‍द्र मोदी जी के नेतृत्‍व में सरकार द्वारा गरीब कल्‍याण का भाव श्रद्धेय दीनदयालजी द्वारा दर्शाया गया मार्ग है। पं. दीनदयाल उपाध्‍याय जी कहते थे
‘भारतीय जनसंघ इस तरह की नई तकनीकों का विकास चाहता है, जहां की एक विकेंद्रीकृत अर्थव्यवस्था में प्रत्येक परिवार एक उत्पादक इकाई बन सके।
बड़े- बड़े उद्योगों में बहुत पूँजी लगती है और रोज़गार कम उपलब्ध होते हैं। इससे बेरोज़गारी बढ़ेगी। भारत जैसे देश के लिए रोज़गारोन्मुखी योजनाएं लागू करनी होंगीं और वर्तमान सरकार इसी कार्य को पूर्ण करने में लगी है।

पं. दीनदयाल उपाध्‍याय जी कहते थे कि यदि देश के कृषक की क्रयशक्ति बढ़ गई  तो यह अन्य उद्योगों के उत्पादन को भी खरीदेगा और उद्योग-धंधे भी अच्छे चलेंगे। एक संपन्न कृषक वर्ग अकेले ही उद्योगों के लिए सबसे बड़ा बाजार उपलब्ध करा सकता है। आज के संदर्भ में यह बात सटीक बैठती है जब कृषि को लाभकारी धंधा एवं किसानों की आय दोगुना करने के लिये सरकार का पूर्ण प्रयास हो रहा है। जब देश की राजनीतिक और प्रशासनिक व्‍यवस्‍था समाज के मुखर एवं प्रखर व्‍यक्ति को ही देखती थी, लेकिन, पंडित जी की दृष्टि तो समाज के अंतिम व्‍यक्ति पर थी। एकात्‍म मानववाद और अंत्‍योदय एक ऐसा दर्शन है, जिससे समग्रता और समरसता से राष्‍ट्रीयता को संबल मिला।

पं. दीनदयाल उपाध्‍याय जीने बड़ी कुशलता और परिश्रमपूर्वक जनसंघ की प्रथम पीढ़ी के कार्यकर्ताओं को गढ़ा और दीर्घयात्रा के लिए तैयार किया। जो आज नेतृत्‍व कर रहे हैं। वे कहते थे कि राजनीतिक महत्वाकांक्षा, पद-प्रतिष्ठा आदि की चाह से प्रेरित होकर कार्य करने वाले लोगों को एकत्र कर सफलता पाना राजनीति में स्वाभाविक और सरल था, किंतु पं. दीनदयाल उपाध्‍याय जी को यह मार्ग कभी अभीष्ट नहीं रहा। उन्होंने तो अपनी महान और पवित्र मातृभूमि का उत्कर्ष तथा अपने देशवासियों की वर्तमान दुरावस्था दूर करने के प्रति कर्तव्यानुभूति को जगाकर, अनुशासित भाव से कार्य करने वालों का विराटसमूह खड़ा करने का उद्देश्य सामने रखा। यह धारा के विपरीत चलना था। अपने दुर्दम्‍य विश्वास के साथ चल पड़े। देखते ही देखते हजारों कार्यकर्ता पं. दीनदयाल उपाध्‍याय जी की मनोकांक्षा के अनुसार मातृभूमि के प्रति अपने दायित्व बोध के साथ अग्रसर होते चले गए। सन् 1952 में जनसंघ की क्षीण सी दिखने वाली धारा एक विशाल प्रवाह में बदलने लगी। दीनदयालजी का वह देशभक्ति से परिपूर्ण, सात्विक भावों को कार्यकर्ताओं के ह्रदय में स्‍थापित करनेवाला आह्वान बड़ा ही अद्भुत, अभूतपूर्व, रोमांचकारी और शाश्वत दिखता है। आज वर्तमान में कार्यकर्ता प्रशिक्षण में यह विचार परिलक्षित हो रहा है।

पं. दीनदयाल उपाध्‍याय जीने संस्कृति और विकृति को ठीक तरह से बताया था कि प्रत्येक देश का अपना एक विशिष्ट प्रभाव होता है। हमारे देश में भी हमारी संस्कृति और हमारे जीवन का एक विशिष्‍ट स्‍वभाव है। जीवन के प्रति हमारा जो विशिष्ट दृष्टिकोण है, उसमें हमारे समाज की एक प्रकृति बनी। इस प्रकृति के कारण एक विशिष्ट स्वभाव बना, इस विशिष्ट स्वभाव को दीनदयालजी ‘चिति’ कहते हैं। यह ‘चिति’ जब विशिष्ट संस्कारों से युक्त हो जाती है; तब वह संस्कृति कहलाती है। हमारा ‘एकात्‍मता’ का स्वभाव ही हमारी चिति का आधार है। कितनी भी विविधताओं और विरोधाभासों के बावजूद भी हम अपनत्‍व के भाव को नहीं छोड़ते।

पं. दीनदयाल उपाध्‍याय जीभारतीय संस्कृति के बारे में कहते थे कि ‘‘भारतीय संस्कृति को परिभाषित करना कठिन है, परंतु इसे महसूस किया जा सकता है।यह किसी की वैयक्तिकता  का विध्वंस किए बिना सामाजिक चेतना का निर्माण करती है। भारतीय संस्कृति ही एक मात्र ऐसी है जो पूरे भारत के लोगों को एक सूत्र में पिरो सकती है। यही हमारे मन में मातृभूमि के प्रति प्रेम और श्रद्धा व गौरव की भावना का संचार कर सकती है। यह संस्कृति जीवन के सभी पक्षों को दिशा देती है। संस्‍कृति शब्‍द तो संसार में प्रचलित है, लेकिन सांस्‍कृतिक राष्‍ट्रवाद की परिकल्‍पना पंडित दीनदयाल उपाध्‍याय जी ने ही की थी।

उदाहरणस्वरूप- अर्थ हमारी भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए ही है, वह साध्‍य नहीं हो सकता। जीवन के प्रति दृष्टिकोण में परिवर्तन भारतीय संस्कृति के आदर्शों के आधार पर हो सकता हैा

पं. दीनदयाल उपाध्‍याय जीकहते थे कि राष्ट्र एक शाश्‍वत और जीवमान इकाई है। इसका निर्माण हजारों वर्षों में होता है। भारत का एक विशिष्ट सनातन राष्ट्र दर्शन है और वह ‘हिंदू-राष्ट्र-दर्शन’ ही है। मैं हिंदू हूं, वह एक चिरंतन वस्तु है। यह वह धागा है, जिससे सब बांधते हैं। कश्मीर से कन्याकुमारी तक रहने वाले सभी केवल इस धागे से ही बंधे हैं हम भारत माता की संतान हैं। मकान बनाना और राष्ट्र बनाना एक बात नहीं। हम हिंदू नहीं तो फिर कैलाश पर लद्दाख पर आक्रमण हो तो हमारे मन पर कोई परिणाम नहीं होगा। रामेश्वरम में रहने वाला यदि अपने को हिंदू समझता है तो वह द्रविड़ स्थान बनाने का नहीं सोचेगा। वह राम की अयोध्या को कैसे भूल सकता है। हिंदुत्व का भाव ही हमारी वास्‍तविकता को प्रकट करता है।जिसके आधार पर यह कलकल बहने वाली नदियां हमारे लिए पवित्र हैं।’’

हम अपने स्वार्थ भोग के लिए नहीं है, संपूर्ण मानव भी इस आधार पर शांति से रहकर प्रगति के लिए प्रयत्न कर सकता है।भगवान के द्वारा प्रदत्त एक मार्ग लेकर मानो राष्ट्रीय अस्मिता को लेकर हम पैदा हुए हैं।

पं. दीनदयाल उपाध्‍याय जीका विचार है कि ‘‘प्रत्येक राष्ट्र की एक विशिष्ट प्रकृति होती है, हमारे राष्ट्र की मूल प्रकृति अध्यात्म प्रधान रही है। आध्यात्मिक दृष्टि ही समन्वय का माध्यम है। मातृभूमि के प्रति असीम श्रद्धा की अनुभूति होना प्रथम आवश्यकता है। श्रद्धा के कारण सभी सुविधाओं में भी समन्वय प्रस्‍थापित किया जा सकता है। गौरवमयी संस्कृति की पुन:प्रतिष्‍ठापना से ही राष्ट्र जीवन में चतुर्दिक् परिव्‍याप्‍त का शमन एवं निराकरण हो सकता है।

पं. दीनदयाल उपाध्‍याय जीका मत था कि हमारे देश की अपनी एक मूल प्रकृति है। भौतिक प्रगति के विकास में हम अपनी इस प्रकृति की उपेक्षा न करें। हमारी वृत्तियां धार्मिक और आध्यात्मिक है। भौतिक प्रगति की ओर बढ़ने की होड़ में हम प्रादेशिकता, जातीयता, भाषावाद की ओर अधिक बढ़ रहे हैं। दीनदयालजी कहते हैं- ‘‘जिनके हृदयों में मातृभूमि के प्रति असंदिग्‍ध श्रद्धा का भाव हो, जिनके जीवनादर्शों  में साम्‍य हो, जीवन के प्रति एक विशिष्ट दृष्टि हो, शत्रु-मित्र समान हों, ऐतिहासिक महापुरुष एक हों, राष्ट्र का निर्माण होता है।

पं. दीनदयाल उपाध्‍याय जीसनातन राष्ट्रीय सच कोउजागर करते हुए कहते थे कि
'एक देश, एक राष्ट्र और एक संस्कृति' यह कोईनारा या उद्घोष नहीं है। यह एक सच्चाई है। जो लोग यह मानते हैं कि यहाँ अनेक संस्कृतियाँ हैं और यह एक उपमहाद्वीप है, यह उनका काम है। हमारे राष्ट्रजीवन की विविधताएँ बाह्य और ऊपरी हैं तथा अंदर की एकता वास्तविक और यथार्थ है।

आज उनकी जयंती के अवसर पर जनसंघ से भारतीय जनता पार्टी की यात्रा के लिये वह एक युगदृष्‍टाहैं। उनके मूलभूत चिंतन पर ही वर्तमान राजनीति के स्‍तंभ खड़े हैं। सरकार का एक-एक निर्णय अंत्‍योदय के कल्‍याण पर आधारित है। आज जन्‍म जयंती के अवसर पर ऐसे महामानव को हमारी विनम्र श्रद्धांजलि !!

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