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अपेक्षाओं के मापदण्ड पर लाल किला के प्राचीर की प्रतिध्वनि

  देश आज अपनी स्वाधीनता की 75 वीं वर्षगांठ मना रहा है। खुशी, उल्लास और उत्सव के पल सांझा करने की होड सी लगी है। सोशल मीडिया से लेकर व्यक्तिगत संवादों तक में बधाइयां, शुभकामनायें देने का दौर चल रहा है। कहीं प्रधानमंत्री के संबोधन पर चर्चायें हो रहीं है तो कहीं देश के वर्तमान हालातों पर समीक्षायें की जा रहीं हैं। राजनैतिक खेमों की सोच के मध्य एक वर्ग ऐसा भी है जिसे धरातल से जुडा राष्ट्रवादी कहा जा सकता है। इस वर्ग के पास सोच है, समझ है, दूरदर्शिता है परन्तु पहुंच नहीं है। चिंतन को चिंता की हद तक पहुंचाने के बाद भी उन्हें अपेक्षित परिणाम प्राप्त नहीं होते। इस वर्ग को राजनैतिक सोच से प्रभावित लोग कभी गोदी मीडिया तो कभी टुकडे-टुकडे गैंग का अंग कह कर हाशिये के बाहर कर पहुंचा देते हैं। वास्तविकता यह है कि इस वर्ग को निष्पक्ष समीक्षा करने पर ही हमेशा अभिशापित गया है, धरातली प्रतिभाओं को पलायन करना पडा है और  जागरूक नागरिकों को होना पडा है कुण्ठित। सत्य को सत्य कहने वाले अपनी आवाज को कभी सामूहिक स्वार्थ के समूहों जैसी चीख नहीं बना पाये। परिणाम हुआ नक्कारखाने में तूती की आवाज सरीखा। आज लाल किले के प्राचीर से 88 मिनिट के संबोधन में प्रधानमंत्री ने उपलब्धियों, संभावानाओं और योजनाओं का खाका खींचा। देश को उज्जवल भविष्य की बानगी दिखाई। विकास के नये सोपानों को तय करने वाली नीतियों को उजागर किया परन्तु इन सब के बीच देश के गौरवशाली अतीत की पुनस्र्थापना कहीं खो सी गई। संस्कारों का संरक्षण कहीं गुम हो गया। धरातली प्रतिभाओं के साथ न्याय का जयघोष स्वरविहीन ही रहा। कोरोना काल की विभीषिका में चारों ओर केवल एक ही शोर किया गया कि चिकित्सा यानी अंग्रेजी दवाइयां, विलायती उपचार और आयातित उपकरण ही सांसों को चलाये रख सकते हैं। शारीरिक स्वास्थ के लिए ऐलोपैथी को एक मात्र उपाय मानने वालों की जमात में शामिल होने की ललक ने स्वयंं की धरती से विकसित होने वाली आयुर्वेदिक संजीवनी को महात्वहीन बना दिया। आयुष की सिध्दा पध्दति की अनन्त क्षमताओं की ओर से मुंह मोड लिया। जबकि आयुर्वेद और सिध्दा की अनेक उपाचार पध्दतियां  कोरोना जैसे वायरस को समाप्त करने में पूरी तरह सफल हो सकतीं थी परन्तु इन विधाओं के जानकारों को न तो अनुसंधान की सुविधायें ही दी गई और न हीं उन्हें अपने प्रयोगों को व्यवहार में लाने की अनुमति। आज के संबोधन में भी इस दिशा में मौन ही साधा गया। यानी निकट भविष्य में हम अपने परम्परागत ज्ञान को व्यवहार में लाने हेतु प्रयास नहीं करेंगे। वहीं मुफ्तखोरी से श्रम की क्षमता में लग रही जंग को अनदेखा कर दिया। सुविधाओं के नाम पर निकम्मेपन को बढावा देने वाले साधनों का ढिंढोरा पीटने की परम्पराओं का यथावत निर्वहन किया गया। स्वाधीनता के समय से ही जाति, धर्म, क्षेत्र, सम्प्रदाय जैसे आधारों पर नागरिकों को बांटने का ही काम जाता रहा, व्यक्तिगत तुष्टीकरण को पोषित करने हेतु पैतरेबाजी मुखरित होती चली गई, गुलामी तोडने की जंग में आयातित नेताओं को राष्ट्र के वास्तविक स्वतंत्रता सेनानियों पर थोप दिया गया। सच्चे देशप्रेमियों को फांसी, प्रताडना और जलालत देने वालों ने स्वयं के देश से सिखा-पढाकर भेजे लोगों के हाथों में गुलामी की लम्बी मार झेल चुके मौन नागरिकों को सौंप दिया। सत्ताधारियों ने तब अपने ही देश में हमारे राष्ट्र का संविधान बनवाकर अधिकांश लोगों की समझ से परे अंग्रेजी भाषा में थोप दिया। वही क्रम आज तक जारी है। राष्ट्र भाषा हिन्दी, संविधान अंग्रेजी में। देश के तीन-तीन नाम यानी भारत, इण्डिया और हिन्दुस्तान। राष्ट्र गौड होता चला गया, राष्ट्रहित नारा बना दिया गया है, राष्ट्रप्रेम फैशन बनकर गाया जाने लगा है परन्तु वास्तविकता तो यह है कि व्यक्तिगत हितों के लिए आज तक केवल और केवल समझौतों का दौर ही चल रहा है। यह सत्य है कि विगत कुछ समय में देश में परिवर्तन की लहर देखने में को मिली है परन्तु उतनी ही, जितनी चुनावी दंगल में आवश्यक है। धारा 370 और रामजन्म भूमि विवाद जैसे नासूर समाप्त किये गये। विदेश नीतियों में परिवर्तन लाया गया। कूटनीति सफल रही। चीन और पाक जैसों पर अंकुश लगाने के प्रयास हुए। मगर यह भी याद रखना चाहिए कि बुलेट ट्रेन से विकास के सोपान तय नहीं होंगे। इतनी ही धनराशि से नवीन संभावनाओं की इकाइयां स्थापित करके रोजगार के अनगिनत अवसर पैदा किये जा सकते थे। हमारी पुरातन विरासत से जुडी तकनीक पर शोध करने वाले संस्थानों की स्थापना की जा सकती थी। हमारे सनातन ग्रन्थों में वर्णित पुष्पक विमान की क्षमता और तकनीक पर यदि अमेरिका शोध कर सकता है तो फिर हम क्यों नहीं। सुदर्शन चक्र पर जर्मनी शोध कर सकता है तो हम क्यों नहीं। पानी पर पत्थर तैराने की तकनीक पर चीन शोध कर रहा है तो हम क्यों नहीं। ऐसे एक नहीं अनेक उदाहरण है जिन्हें रेखांकित किया जा सकता है। यही हाल चिकित्सा जगत में है, रोजगार जगत में है और है अंतरिक्ष जगत में। जब हमारा योग पश्चिम में योगा होकर लौटता है तब उसे स्वीकारोक्ति मिलती है। ऐसे अनगिनत कारक है जिनकी विवेचना की जाना चाहिए। अपेक्षाओं के मापदण्ड पर लाल किले के प्राचीर की प्रतिध्वनि कितनी सार्थक हुई, यह एक प्रश्नचिंह बनकर उभरा है। यह प्रश्न इसलिये भी उभरा है कि वर्तमान प्रधानमंत्री की ओर देश आशा भरी नजरों से देख रहा है। स्वयं के विवेक से निर्णय लेने वाले पर ही तो नागरिकों की अपेक्षायें टिकीं है। फिलहाल दूर-दूर तक कोई दूसरा  व्यक्तित्व दिखाई नहीं देता। कुछ नया, सुखद और सम्मानित होने की संभावनायें आज चरम सीमा पर हैं। विसम परिस्थितियों में भी संयम का परचम फहराने वाले प्रधानमंत्री को देश के समृध्दिशाली अतीत की पुनस्र्थापना हेतु श्रंखलाबध्द प्रयास करने होंगे तभी देश को पुन: विश्वगुरु के सिंहासन पर आसीन कराया जा सकेगा। इस बार बस इतना ही। अगले सप्ताह एक नई आहट के साथ फिर मुलाकात होगी।


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